चैत्र मास की शुक्ल पक्ष की अष्टमी को चैत्र दुर्गा अष्टमी मनाई जाती है। इस दिन पर्वतराज की पुत्री पार्वती ने अवतार लिया था। इस दिन अशोकाष्टमी भी मनाई जाती है।
इस दिन कुमारियाँ तथा सुहागिनें पार्वती जी की गोबर से निर्मित प्रतिमा का पूजन करती हैं। नवरात्रों के पश्चात दुर्गाजी की प्रतिमाओं का विसर्जन किया जाता है। इसलिए इसे दुर्गाष्टमी भी कहते हैं। इस पर्व पर नवमी को प्रातःकाल देवी का पूजन होता है। पार्वती जी के निमित्त व्रत करने वाली महिलाओं को पति सेवा का भाव नहीं भूलना चाहिए।
प्राचीन काल में शुभेंदु नाम का भील रहता था। वो अत्यंत दरिद्र था परन्तु फिर भी प्रसन्न रहता था। जिस प्रदेश में भील रहता था वहाँ का राजा क्रूर था। वो दान धर्म में कोई रूचि नहीं रखता था। एक दिन कुछ छोटी बच्चियाँ उसके दरबार में आयीं। उन्होंने राजा से कहा कि देवी की पूजा के लिए उन्हें कुछ सामग्री की आवश्यकता है। राजा ने बच्चियों का मान ना रखते हुए उन्हें वापस भेज दिया।
भील अपने घर के आँगन में कार्य कर रहा था। उसने देखा कि कुछ बच्चियाँ चिंतित दिख रहीं हैं। उसने उनकी चिंता का कारण पूछा। बच्चियों ने सामग्री की बात बताई और कहा कि वे बहुत आशा के साथ राजा के पास गयीं थीं परन्तु अब वो पूजा नहीं कर पाएंगी।
भील को बच्चियों पर दया आयी। उसने सभी को भोजन कराया। इतना धन नहीं था उसके पास कि आज वो स्वयं भी भोजन कर सके इसलिए उसने आज भूखा रहने का निश्चय किया। कुछ धन संग्रह किया था उसने वो बच्चियों को पूजा करने के लिए दे दिया। उन बच्चियों के मुख की मुस्कान देख कर उसे परम संतोष की अनुभूति हुई।
शाम का वक़्त था और वो अपने कार्य में व्यस्त था तभी उसने देखा कि सुबह वाली बच्चियों में से किसी एक बच्ची का कुण्डल उसके घर में ही गिर गया था। उसने उसे उठाने का प्रयास किया परन्तु वो उठा नहीं। उसने थोड़ा मिट्टी हटा कर प्रयास किया परन्तु वो फिर भी नहीं उठा। धीरे धीरे उसने काफी बड़ा गड्ढा कर दिया और देखा कि वो कुण्डल एक सोने के कलश का भाग है जो उससे चिपका हुआ है। भील के पास बहुत धन हो गया।
धीरे धीरे राजा को राजपाट में मुश्किलें आने लगीं। उसके मंत्री उससे बगावत करने लगे। राजा की शक्ति कमजोर होने लगी। एक रात उसे स्वप्न आया कि वो भूख से बेहाल है और उसे कोई जल भी प्रदान नहीं कर रहा। प्रथम बार राजा को भूख और प्यास से होने वाली पीड़ा का एहसास हुआ। वो दौड़ते हुए बाहर गया और उसने देखा कि सभी लोग आपस में बैठ कर बातें कर रहे हैं। कोई खेल रहा है तो कोई प्रसन्न है। दूर एक बूढी माता भूखी लग रही है। राजा आज लोगों के सुख की और आकर्षित नहीं था। आज भूख की पीड़ा समझ आ रही थी। अचानक उसे बच्चियों की याद आयी। वो सर्वप्रथम राज महल से स्वयं भोजन लेकर बूढी माँ को खिलाने गया। राजा को भोजन कराते देख बूढी माँ ने आशीर्वाद दिया कि वो सदा सुखी रहे।
अगले दिन राजा ने घोषणा की कि आज राज्य की सभी बच्चियों और बच्चों को महल में भोजन कराया जायेगा। आज चैत्र माह की अष्टमी का दिन था। महल में आज एक प्रसंग का माहौल था। स्वयं राजा बच्चों को खाना खिला रहे थे। तभी उसने देखा कि वो बच्चियाँ भी आयीं हैं जो पहले आयीं थीं। राजा ने उनसे क्षमा माँगी। बच्चियाँ बोलीं कि क्षमा तो कब का कर दिया। बोला था ना सदा सुखी रहो।
राजा माँ की महिमा को जान गया। उसने सभी बच्चों को नए वस्त्र भी दान किये। कितना भी दान किया पर राजकोष धन से पूरी तरह भरा था। जो मंत्री राजा के खिलाफ बगावत कर रहे थे वो उसके दान धर्म को देख कर उसकी विजय के नारे लगाने लगे। सभी शत्रुओं को सन्देश पहुँच गया कि युद्ध का विचार छोड़ दें क्योंकि राजा बहुत शक्तिशाली हो चुका है। युद्ध का अर्थ होगा उन सबकी मृत्यु। राजा ने घोषणा की कि सभी आज के दिन चैत्र दुर्गा अष्टमी का व्रत करेंगे।
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