चैत्र नवरात्रि 2019 का त्योहार चैत्र शुक्ल की प्रतिपदा से आरंभ करके रामनवमी तक मनाया जाता है। इन दिनों भगवती दुर्गा पूजा तथा कन्या पूजन किया जाता है। प्रथम दिवस घट-स्थापना एवं जौ बोने की क्रिया की जाती हैं। नौ दिनों तक माँ दुर्गा का पाठ किया जाता है जो ब्राह्मण द्वारा या स्वयं भी किया जा सकता है।
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प्राचीन समय में सुरथ नाम का राजा था। एक समय वह अपने राज्य से विरक्त रहने लगा जिसका लाभ उनके शत्रु राजाओं ने उठाया और उस पर चढ़ाई कर दी। सुरथ की सेना भी शत्रु से मिल गई थी। परिणामस्वरूप राजा सुरथ की हार हुई और वह जान बचाकर वन की तरफ भाग गया। उसी वन में राजा का समाधि नामक एक वणिक मिला जो अपनी स्त्री एवं संतान के दुर्व्यवहार के कारण वहां निवास करता था। दोनों में परस्पर घनिष्ठता हो गई।
एक दिन वे दोनों घूमते हुए महर्षि मेघा के आश्रम में पहुँचे। महर्षि मेघा ने उन दोनों से आने का कारण पूछा तो वे दोनों बोले कि हम अपने ही सगे-सम्बन्धियों द्वारा अपमानित एवं तिरस्कृत हुए हैं। परन्तु हमारे हृदय में उनका मोह अभी भी बना हुआ है, इसका क्या कारण है कृपा करके बताइए। महर्षि मेघा ने उन्हें समझाया कि मन शक्ति के आधीन होता है और आदि शक्ति के विद्या और अविद्या दो रूप हैं। विद्या ज्ञान स्वरूपा है और अविद्या अज्ञान स्वरूपा। जो व्यक्ति अविद्या (अज्ञान) का आदिकरण रूप में उपासना करते हैं, उन्हें वे विद्या स्वरूपा प्राप्त होकर मोक्ष प्रदान करती है।
यह सुनकर राजा सुरथ के मन में जिज्ञासा उत्पन्न हुई, उन्होंने पूछा- हे महर्षि यह देवी कौन हैं उनका जन्म कैसे हुआ ?
महर्षि बोले- आप जिस देवी के विषय में पूछ रहे हैं वह नित्य स्वरूपा और विश्व व्यापिनी है। उसके बारे में ध्यानपूर्वक सुनो।
कल्पांत के समय विष्णु भगवान क्षीर सागर में अनन्त शैय्या पर शयन कर रहे थे, तभी उनके दोनों कानों से मधु और कैटभ नामक दो दैत्य उत्पन्न हुए। वे दोनों विष्णु की नाभि कमल से उत्पन्न ब्रह्माजी को मारने दौड़े। ब्रह्माजी ने उन दोनों राक्षसों को देखकर विष्णुजी की शरण में जाने की सोची। परन्तु विष्णु भगवान उस समय सो रहे थे। तब उन्होंने विष्णु भगवान को जगाने हेतु उनके नयनों में निवास करने वाली योगनिद्रा की स्तुति की।
उनकी स्तुति से प्रसन्न होकर तमोगुण अधिष्ठात्री देवी विष्णु भगवान के नेत्र, नासिका, मुख तथा हृदय से निकलकर ब्रह्मा के सामने उपस्थित हो गई। योगनिद्रा के निकलते ही विष्णु भगवान उठकर बैठ गए। भगवान विष्णु और उन राक्षसों में पाँच हजार वर्षों तक युद्ध चलता रहा। अन्त में मधु और कैटभ दोनों राक्षस मारे।
एक समय देवताओं के स्वामी इन्द्र तथा दैत्यों के स्वामी महिषासुर में सैकड़ों वर्षों तक घनघोर संग्राम हुआ। इस युद्ध में देवराज इन्द्र की पराजय हुई और महिषासुर इन्द्रलोक का स्वामी बन बैठा। देवतागण स्वयं को निर्बल समझने लगे तधा ब्रह्माजी के नेतृत्व में भगवान विष्णु और भगवान शंकर की शरण में गए। देवताओं की व्यथा सुनकर भगवान विष्णु तधा भगवान शंकर क्रोधित हो गए। उसी समय भगवान विष्णु, ब्रह्मा, शिव तथा इन्द्र आदि के शरीर से एक तेज पुंज निकला जिससे समस्त दिशाएँ जलने लगीं। अन्त में यही तेज पुंज एक देवी के रूप में परिवर्तित हो गया।
देवी का स्वरूप अत्यन्त शक्तिशाली तथा तेजोमय प्रतीत होता था। सभी देवताओं से आयुध एवं शक्ति प्राप्त करके देवी उच्च स्वर में अट्टहास करने लगी जिससे तीनों लोकों में हलचल मच गई।
महिषासुर अपनी सेना लेकर इस सिंहनाद की ओर दौड़ा। उसने देखा कि देवी के तेज के प्रभाव से तीनों लोक आलोकित हो रहे हैं।
महिषासुर की शक्ति देवी के सामने क्षीण पड़ गयी और वह देवी के हाथों मारा गया। आगे चलकर यही देवी शुम्भ और निशुम्भ राक्षसों का वध करने के लिए गौरी देवी के रूप में अवतरित हुई।
इन व्याख्यानों के उपरान्त मेघा ऋषि ने राजा सुरथ तथा वणिक का देवी स्तवन की विधिवत व्याख्या बताई। राजा और वणिक नदी पर जाकर देवी की तपस्या करने लगे। तीन वर्ष घोर तपस्या करने के बाद देवी ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया। चैत्र नवरात्रि की कृपा से वणिक संसार के मोह से मुक्त होकर आत्मचिंतन में लग गया और राजा ने शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके अपना वैभव प्राप्त कर लिया।
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