भविष्योत्तर पुराण के अनुसार आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को ही देवशयनी एकादशी 2018 कहा जाता है। कहीं-कहीं इस तिथि को ‘पद्मनाभा‘ भी कहते हैं। इसी दिन से चौमासे का आरम्भ माना जाता है। इस दिन भगवान श्री हरि विष्णु क्षीर-सागर में शयन करते हैं। इस दिन उपवास करके श्री हरि विष्णु की सोना, चांदी, तांबा या पीतल की मूर्ति बनवाकर उसका षोड्शोपचार सहित पूजन करके पीताम्बर आदि से विभूषित कर सफेद चादर से ढके गद्दे-तकिए वाले पलंग पर उन्हें शयन कराना चाहिए। इस वर्ष देवशयनी एकादशी 23 जुलाई 2018 को है।
पुराणों का ऐसा मत है कि भगवान विष्णु इस दिन से चार मास पर्यन्त पाताल में राजा बलि के द्वार पर निवास करके कार्तिक शुक्ल एकादशी को लौटते हैं। इसी प्रयोजन से इस दिन को ‘देवशयनी‘ तथा कार्तिक शुक्ल एकादशी को ‘प्रबोधिनी एकादशी‘ कहते हैं। इन चार माह पर्यन्त सभी मांगलिक कार्य बन्द रहते हैं। व्यक्ति को चाहिए कि इन चार महीनों के लिए अपनी रुचि अथवा अभीष्ट के अनुसार नित्य व्यवहार के पदार्थों का त्याग और ग्रहण करे।
मधुर स्वर के लिए गुड़ का, दीर्घायु अथवा पुत्र-पौत्रादि की प्राप्ति के लिए तेल का, शत्रुनाशादि के लिए कडुवे तेल का, सौभाग्य के लिए मीठे तेल का और स्वर्ग प्राप्ति के लिए पुष्पादि भोगों का त्याग करें।
देह-शुद्धि या सुन्दरता के लिए परिमित प्रमाण के पंचगव्य का, वंश वृद्धि के लिए नियमित दूध का, कुरुक्षेत्रादि के समान फल मिलने के लिए पात्र (बर्तन) में भोजन करने के बजाय ‘पत्र’ का तथा सर्वपापक्षयपूर्वक सकल पुण्य फल प्राप्त होने के लिए एकभुक्त, नक्तव्रत, अयाचित भोजन या सर्वथा उपवास करने का व्रत ग्रहण करें। | चतुर्मासीय व्रतों में भी कुछ वर्जनाएं हैं। जैसे—पलंग पर सोना, भार्या का संग करना, झूठ बोलना, मांस, शहद और दूसरे का दिया दही-भात आदि का भोजन करना, मूली एवं बैगन आदि शाक पत्र खाना त्याग देना चाहिए।
इन दिनों अर्थात इन चार माह में तपस्वी भ्रमण नहीं करते, वे एक ही स्थान पर रहकर तपःकार्य करते हैं। इन दिनों केवल ब्रज की यात्रा की जा सकती है क्योंकि इन चार महीनों में पृथ्वी के सभी तीर्थ ब्रज में आकर निवास करते हैं।
ब्रह्म वैवर्त पुराण में इस एकादशी के विशेष माहात्म्य का वर्णन किया गया है। इस व्रत से प्राणी की समस्त मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।
एक बार देवऋषि नारदजी ने ब्रह्माजी से इस एकादशी के विषय में जानने की उत्सुकता प्रकट की, तब ब्रह्माजी ने उन्हें बताया – सतयुग में मान्धाता नामक एक चक्रवर्ती सम्राट राज करते थे। उनके राज्य में प्रजा बहुत सुखी थी, किंतु भविष्य में क्या हो जाए, यह कोई नहीं जानता। अतः वे भी इस बात से अनभिज्ञ थे कि उनके राज्य में शीघ्र ही भयंकर अकाल पड़ने वाला है। उनके राज्य में पूरे तीन वर्ष तक वर्षा न होने के कारण भयंकर अकाल पड़ा। इस दुर्भिक्ष (अकाल) से चारों ओर त्राहि-त्राहि मच गई। धर्म पक्ष के यज्ञ, हवन, पिण्डदान, कथा-व्रत आदि सबमें कमी हो गई। जब मुसीबत पड़ी हो तो धार्मिक कार्यों में प्राणी की रुचि कहां रह जाती है। प्रजा ने राजा के पास जाकर अपनी वेदना की दुहाई दी।
राजा तो इस स्थिति को लेकर पहले से ही दुःखी थे। वे सोचने लगे कि आखिर मैंने ऐसा कौन-सा पाप-कर्म किया है, जिसका दंड मुझे इस रूप में मिल रहा है? फिर इस कष्ट से मुक्ति पाने का कोई साधन करने के उद्देश्य से राजा सेना को लेकर जंगल की ओर चल दिए। वहां विचरण करते-करते एक दिन वे ब्रह्माजी के पुत्र अंगिरा ऋषि के आश्रम में पहुंचे और उन्हें साष्टांग प्रणाम किया। ऋषिवर ने आशीर्वचनोपरान्त कुशल क्षेम पूछा, फिर जंगल में विचरने व अपने आश्रम में आने का प्रयोजन भी जानना चाहा।
तब राजा ने हाथ जोड़कर कहा – “महात्मन्! सभी प्रकार से धर्म का पालन करता हुआ भी मैं अपने राज्य में दुर्भिक्ष का दृश्य देख रहा हूं। आखिर किस कारण से ऐसा हो रहा है, कृपया इसका समाधान करें।”
यह सुनकर महर्षि अंगिरा ने कहा – “हे राजन! सब युगों से उत्तम यह सतयुग है। इसमें छोटे से पाप का भी बड़ा भयंकर दंड मिलता है। इसमें धर्म अपने चारों चरणों में व्याप्त रहता है। आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की देवशयनी एकादशी का व्रत करें। इस व्रत के प्रभाव से अवश्य ही वर्षा होगी।”
राजा अपने राज्य की राजधानी लौट आए और चारों वर्णों सहित देवशयनी एकादशी का विधिपूर्वक व्रत किया। व्रत के प्रभाव से उनके राज्य में मूसलाधार वर्षा हुई और पूरा राज्य धन-धान्य से परिपूर्ण हो गया।
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