लंका पर आधिपत्य का क्रम कुछ इस प्रकार है –
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समुद्रमंथन के दौरान देवताओं के अमृत पान से दैत्य गुरु शुक्राचार्य बहुत क्रोधित हुए। उन्होंने संभरासुर नाम के दैत्य से कहा कि वो दैत्य राज सुकेश के पुत्र सुमाली और उसके रिश्तेदार भाइयों, माली और माल्यवान, से जाकर मिले और देवताओं के विरूद्ध युद्ध की तैयारी करे।
सुमाली, माली और माल्यवान अति शक्तिशाली राक्षस थे। उन्होंने देव शिल्पी विश्वकर्मा को धमकाकर एक स्वर्ण नगरी का निर्माण करवाया जो दक्षिण भारत में हिन्द महासागर के तट पर त्रिकूट पर्वत के समीप सुमेरु पर्वत पर थी। विश्वकर्मा ने उस नगरी की रक्षा के लिए लंकनी को नियुक्त किया। लंकनी गन्धर्व की पुत्री थीं जिन्हें एक श्राप के कारण असुरों की द्वाररक्षक बनना पड़ा। परन्तु ब्रह्मा जी ने कहा की एक दिन एक वानर आएगा और इस पूरी नगरी को जला कर नष्ट कर देगा। उस दिन वो श्राप से मुक्त हो जाएगी। सर्वप्रथम सुमाली का लंका पर आधिपत्य था।
सुमाली, माली और माल्यवान का आतंक बहुत बढ़ गया और उन्होंने देवताओं पर आक्रमण कर दिया। विष्णु जी संग देवताओं ने युद्ध किया और सुमाली को हरा दिया। विष्णु जी ने उसे लंका को छोड़ कर पाताल लोक भाग जाने को कहा और उसने वैसा ही किया। बचे उसे राक्षस धरती पर भृगु ऋषि के आश्रम में पहुँच गए। भृगु ऋषि ब्रह्मा जी के मानस पुत्र हैं और सप्त ऋषि में से एक हैं। भृगु ऋषि की अनुपस्तिथि में राक्षसों ने भृगु ऋषि की भार्या, वृंदा से संरक्षण की गुहार की। वृंदा ने उन्हें वचन दे दिया। जब नारायण ने वृंदा से राक्षसों को छोड़ने को कहा तो वृंदा ने मना कर दिया। जब कोई और मार्ग नहीं बचा तो नारायण ने वृंदा का शीश काट दिया। भृगु ऋषि नारायण भक्त थे परन्तु जब उन्होंने वृंदा का कटा शीश देखा तो उन्होंने नारायण को श्राप दिया की त्रेता युग के अवतार में वो अपनी पत्नी के वियोग में तड़पेंगे। विष्णु जी ने श्राप स्वीकार किया और वहां से चले गए। क्रोधित भृगु ऋषि ने राक्षसों को आश्वासन दिया की वो और उनके पुत्र शुक्राचार्य हमेशा दुष्ट देवताओं से दानवों की रक्षा करेंगे। भृगु ऋषि और शुक्राचार्य को संजीवनी विद्या आती थी जिससे वो किसी को भी जीवित कर सकते थे। उन्होंने वृंदा को पुनः जीवित कर दिया।
जब सुमाली पातळ लोक भाग गया तो लंका नगरी खाली हो गयी। ब्रह्मा से उत्पन्न सप्त ऋषि में से सबसे प्रमुख पुलस्थ ऋषि के पौत्र और विश्रव ऋषि के पुत्र वैश्रव कुबेर ने ब्रह्मा जी का तप करके शक्तियां और पुष्पक विमान प्राप्त किया। कुबेर जो यक्षों के राजा थे उन्होंने लंका पर राज किया और पुलस्थ वंश की स्थापना की।
जब सुमाली को कुबेर के राज्य का पता चला तो वो बहुत क्रोधित हुआ। उसने अपनी पुत्री, केकसी, को विश्रव ऋषि से विवाह करने भेजा ताकि वो एक ऐसे पुत्र जो जन्म दे जो राक्षसों की भांति शक्तिशाली हो और ऋषियों की भांति शास्त्रों का ज्ञाता। केकसी ने विश्रव ऋषि से विवाह कर लिया।
कैकसी ने एक पुत्र को जन्म दिया जो दहाड़ते हुए रोया और फिर हंसा। उसका आकार किसी 10 वर्ष के बालक जितना था। वो बहुत शक्तिशाली था। जन्म से ही उसके 10 शीश थे इसलिए उसका नाम दशानन रखा गया।
दशानन और उसके भाई घोर तपस्या कर रहे थे परन्तु ब्रह्मा जी प्रसन्न नहीं हो रहे थे। क्रोध में दशानन ने अपना शीश अपने ही खडग से काट दिया। शीश काटने पर भी वो मरा नहीं अपितु एक नया शीश आ गया। दशानन अपनी तपस्या करता ही रहा।
दशानन सर काटते-काटते जैसे ही दसवीं बार सर काटता है तभी ब्रह्म देव प्रकट हो जाते हैं। वो दशानन को उसके दासों सर वापस दे देते हैं और वरदान देते हैं कि किसी भी दैत्य, देवता, गन्धर्व, यक्ष के हाथों उसकी मृत्यु नहीं होगी। अपने अहंकार के चलते मनुष्यों को तुच्छ समझ कर उन्हें वरदान में शामिल नहीं किया। इसके साथ ही ब्रह्मा जी ने उसके नाभि में अमृत कुंड दिया।
वरदान पाने के बाद सर्वप्रथम दशानन ने अपने नाना सोमाली के साथ लंका पर आक्रमण किया। कुबेर ने बिना युद्ध किये लंका को अपने छोटे भाई दशानन को सौंप दिया।
अंत में रावण और श्री राम का युद्ध हुआ। रावण अपनी पूरी शक्ति से युद्ध कर रहा था। उसे मारना असंभव हो गया। उसकी बुद्धि, माया, बल और वरदान के आगे सभी के अस्त्र-शस्त्र विफल हो गए। एक शीश कटता तो दूसरा प्रकट हो जाता। तभी विभीषण ने बताया कि रावण की नाभि में अमृत कलश है। जब तक वो नहीं फूटेगा, रावण का अंत असंभव है। श्री राम ने रावण का अमृत कलश तोड़ दिया और रावण आकाश से सीधे ज़मीन पर गिर गया।
विभीषण लंका का राजा बना और सीता जी और श्री राम का मिलन हुआ। परन्तु संसार की संतुष्टि के लिए सीता जी को अग्नि परीक्षा देनी पड़ी।
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