नारद जी समुद्रमंथन का रहस्य जानने श्री विष्णु के पास आये और कहा, “नारायण नारायण। प्रभु, ये दैत्य और देवताओं का युद्ध तो एक नियम सा बन गया है। दैत्य स्वर्ग पर आक्रमण करते हैं और आप देवताओं की रक्षा करते हैं। हारने के बाद दैत्य कुछ समय तक शांत रहते हैं और फिर आक्रमण कर देते हैं। ये कब तक चलेगा? क्या इसका कोई समाधान नहीं है?”
श्री विष्णु ने कहा, “हे देवर्षि! अब कुछ ऐसा होने वाला है जिसमें देवता और दानव दोनों साथ में कार्य करेंगे।”
नारद जी ने कहा, “प्रभु मुझे तो बता ही दीजिये ये रहस्य। आप तो जानते ही हैं कि में जाने बिना रह नहीं सकता।”
श्री विष्णु ने कहा, “तो सुनिए देवर्षि, ये है समुद्रमंथन का रहस्य ।”
उस समय दैत्यों के राजा बलि का साम्राज्य था। बलि, प्रह्लाद के वंशज थे इसलिए उनमें दैत्य होते हुए भी सदगुण थे। इंद्र ने बलि से सागर मंथन की बात कही तो वे तैयार हो गए।
समुद्रमंथन एक विधि थी जिसमें जिस प्रकार दही को मथ कर मक्खन निकाला जाता है उसी प्रकार सागर को मथ कर उसमें छुपे बहुमूल्य रहस्यों को बाहर निकालना था। सागर इतना विशाल था तो मथने के लिए एक विशाल रस्सी की भी आवश्यकता थी जो इतनी शक्तिशाली हो कि देवताओं और दानवों के बल से टूट ना जाए। ऐसी कोई भी रस्सी का होना मुमकिन नहीं था इसलिए श्री हरी ने शेषनाग को आज्ञा दी कि वो रस्सी का कार्य करे।
मेरु पर्वत को मथनी बनाया गया और देवताओं और दानवों ने मंथन शुरू किया। देवताओं ने जानबूझ कर शेषनाग के सर वाला भाग लिया जिससे दानव भड़क गए और सर का भाग स्वयं के हिस्से में मांगने लगे। देवताओं ने सर का भाग उन्हें सौंप दिया। सर के भाग से शेषनाग फुंफकार कर ज्वाला निकाल रहे थे जिससे दानव जलने लगे परन्तु उन्होंने ही उस भाग को छीना था तो अब कुछ कर नहीं सकते थे।
जब मंथन शुरू हुआ तो मेरु पर्वत सागर में धसने लगा। तब श्री हरी ने कछुए का रूप लिया जिसे कूर्म अवतार कहा जाता है। कछुआ अवतार में हरी मेरु पर्वत के नीचे बैठ गए और उनकी पीठ पर मेरु पर्वत घूमने लगा।
सागर मंथन हुआ और उसमें से अनेकों प्रकार की वस्तुएं निकली, जैसे –
- हलाहल – विष जो पूरे संसार को नष्ट कर देता परन्तु भोले शंकर ने उसे पी कर अपने कंठ में रोक लिया और नीलकंठ कहलाये।
- लक्ष्मी – देवी लक्ष्मी जो विष्णु जी की अर्धांगिनी बनीं।
- ऐरावत – दिव्य हाथी जो इंद्र की सवारी बना।
- अप्सराऐं – अति सुन्दर नर्तकियाँ जिन्होंने गंधर्वों को अपना साथी चुना। पुंजिकस्थला भी एक अप्सरा थीं जिनसे पवन देव प्रेम करते थे।
- वरुणी
- कामधेनु – दिव्य गाय जिसके दूध से असंख्य लोगों के लिए भोजन बनाया जा सकता था। ये ऋषि वशिष्ठ को मिली।
- उच्चैश्रवश्व – दिव्य अश्व जो राजा बलि को मिला।
- कौस्तुभ – सबसे दिव्य रत्न जो श्री विष्णु के पास है।
- पारिजात (कल्पवृक्ष) – दिव्य वृक्ष जो हर मनोकामना पूर्ण करता है। ये स्वर्ग में है।
- शारंग – दिव्य धनुष जो असुरों को मिला।
- चंद्र – भोले नाथ के शीश पर विराजमान हुआ।
- शंख
- ज्येष्ठ – दुर्भाग्य की देवी।
- छाता – वरुण देव को मिला।
- कुण्डल – देव माता अदिति को मिले।
- मदिरा – जो असुरों ने ली।
- अमृत कलश के साथ वैद्य धन्वन्तरि।
असुर अमृत कलश ले कर भाग गए। देवताओं ने श्री विष्णु से कहा कि अगर असुरों ने अमृत पान कर लिया तो अनर्थ हो जायेगा। विष्णु जी ने एक सुन्दर अप्सरा का रूप रखा जिसका नाम मोहिनी था। उसने अपने रूप के जाल में असुरों को फंसा कर देवताओं को अमृत पान करा दिया। राहु नाम के असुर ने छिप कर अमृत पान कर लिया जिसे सूर्य और चंद्र ने देखा। श्री हरी ने राहु की गर्दन काट दी परन्तु वो अमर हो चूका था। शीश राहु बन गया और केतु धड़। उन्होंने सूर्य और चंद्र को धमकी दी कि समय समय पर वो उन पर ग्रहण लगा देंगे।
ये समुद्रमंथन का रहस्य , हनुमान जी के संपूर्ण जीवन लेख से लिया गया है।