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हनुमान बाहुक – गोस्वामी तुलसीदास द्वारा रचित स्तोत्र

सवैया जान सिरोमनि हौ हनुमान सदा जन के मन बास तिहारो।

ढ़ारो बिगारो मैं काको कहा केहि कारन खीझत हौं तो तिहारो।।

साहेब सेवक नाते तो हातो कियो सो तहाँ तुलसी को न चारो।

दोष सुनाये तें आगेहुँ को होशियार ह्वैं हों मन तौ हिय हारो।। १६।।

भावार्थ – हे हनुमान् जी ! आप ज्ञान-शिरोमणी हैं और सेवकों के मन में आपका सदा निवास है। मैं किसी का क्या गिराता वा बिगाड़ता हूँ। हे स्वामी ! आपने मुझे सेवक के नाते से च्युत कर दिया, इसमें तुलसी का कोई वश नहीं है। यद्यपि मन हृदय में हार गया है तो भी मेरा अपराध सुना दीजिये, जिसमें आगे के लिये होशियार हो जाऊँ।। १६।।


 

तेरे थपे उथपै न महेस, थपै थिरको कपि जे घर घाले।

तेरे निवाजे गरीब निवाज बिराजत बैरिन के उर साले।।

संकट सोच सबै तुलसी लिये नाम फटै मकरी के से जाले।

बूढ़ भये, बलि, मेरिहि बार, कि हारि परे बहुतै नत पाले।। १७।।

भावार्थ – हे वानरराज ! आपके बसाये हुए को शंकर भगवान भी नहीं उजाड़ सकते और जिस घर को आपने नष्ट कर दिया उसको कौन बसा सकता है ? हे गरीबनिवाज ! आप जिस पर प्रसन्न हुए, वे शत्रुओं के हृदय में पीड़ा रूप होकर विराजते हैं। तुलसीदास जी कहते हैं, आपका नाम लेने से सम्पूर्ण संकट और सोच मकड़ी के जाले के समान फट जाते हैं। बलिहारी ! क्या आप मेरी ही बार बूढ़े हो गये अथवा बहुत-से गरीबों का पालन करते – करते अब थक गये हैं ? (इसी से मेरा संकट दूर करने में ढील कर रहे हैं)।। १७।।


 

सिंधु तरे, बड़े बीर दले खल, जारे हैं लंक से बंक मवा से।

तैं रनि-केहरि केहरि के बिदले अरि-कुंजर छैल छवा से।।

तोसों समत्थ सुसाहेब सेई सहै तुलसी दुख दोष दवा से।

बानर बाज ! बढ़े खल-खेचर, लीजत क्यों न लपेटि लवा-से।। १८।।

भावार्थ – आपने समुद्र लाँघकर बड़े-बड़े दुष्ट राक्षसों का विनाश करके लंका -जैसे विकट गढ़ को जलाया। हे संग्राम-रुपी वन के सिंह ! राक्षस शत्रु बने-ठने हाथी के बच्चे के समान थे, आपने उनको सिंह की भाँति विनष्ट कर डाला। आपने बराबर समर्थ और अच्छे स्वामी की सेवा करते हुए तुलसी दोष और दुःख की आग को सहन करे (यह आश्चर्य की बात है)। हे वानर-रुपी बाज ! बहुत-से दुष्ट-जन-रुपी पक्षी बढ़ गये हैं, उनको आप बटेर के समान क्यों नहीं लपेट लेते ?।। १८।।


 

अच्छ-विमर्दन कानन-भानि दसानन आनन भा न निहारो।

बारिदनाद अकंपन कुंभकरन्न-से कुंजर केहरि-बारो।।

राम-प्रताप-हुतासन, कच्छ, बिपच्छ, समीर समीर-दुलारो।

पाप-तें साप-तें ताप तिहूँ-तें सदा तुलसी कहँ सो रखवारो।। १९।।

भावार्थ – हे अक्षयकुमार को मारने वाले हनुमान् जी ! आपने अशोक-वाटिका को विध्वंस किया और रावण-जैसे प्रतापी योद्धा के मुख के तेज की ओर देखा तक नहीं अर्थात् उसकी कुछ भी परवाह नहीं की। आप मेघनाद, अकम्पन और कुम्भकर्ण -सरीखे हाथियों के मद को चूर्ण करने में किशोरावस्था के सिंह हैं। विपक्षरुप तिनकों के ढेर के लिये भगवान राम का प्रताप अग्नि-तुल्य है और पवनकुमार उसके लिये पवन-रुप हैं। वे पवननन्दन ही तुलसीदास को सर्वदा पाप, शाप और संताप – तीनों से बचाने वाले हैं।। १९।।


 

घनाक्षरी

जानत जहान हनुमान को निवाज्यौ जन, मन अनुमानि बलि, बोल न बिसारिये।

सेवा-जोग तुलसी कबहुँ कहा चूक परी, साहेब सुभाव कपि साहिबी सँभारिये।।

अपराधी जानि कीजै सासति सहस भाँति, मोदक मरै जो ताहि माहुर न मारिये।

साहसी समीर के दुलारे रघुबीर जू के, बाँह पीर महाबीर बेगि ही निवारिये।। २०।।

भावार्थ – हे हनुमान् जी ! बलि जाता हूँ, अपनी प्रतिज्ञा को न भुलाइये, जिसको संसार जानता है, मन में विचारिये, आपका कृपा-पात्र जन बाधारहित और सदा प्रसन्न रहता है। हे स्वामी कपिराज ! तुलसी कभी सेवा के योग्य था ? क्या चूक हुई है, अपनी साहिबी को सँभालिये, मुझे अपराधी समझते हों तो सहस्त्रों भाँति की दुर्दशा कीजिये, किन्तु जो लड्डू देने से मरता हो उसको विष से न मारिये। हे महाबली, साहसी, पवन के दुलारे, रघुनाथजी के प्यारे ! भुजाओं की पीड़ा को शीघ्र दूर कीजिये।। २०।।


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