जीओं जग जानकी जीवन को कहाइ जन, मरिबे को बारानसी बारि सुरसरि को।
तुलसी के दुहूँ हाथ मोदक हैं ऐसे ठाँउ, जाके जिये मुये सोच करिहैं न लरि को।।
मोको झूटो साँचो लोग राम को कहत सब, मेरे मन मान है न हर को न हरि को।
भारी पीर दुसह सरीर तें बिहाल होत, सोऊ रघुबीर बिनु सकै दूर करि को।। ४२।।
भावार्थ – जानकी-जीवन रामचन्द्रजी का दास कहलाकर संसार में जीवित रहूँ और मरने के लिये काशी तथा गंगाजल अर्थात् सुरसरि तीर है। ऐसे स्थान में (जीवन-मरण से) तुलसी के दोनों हाथों में लड्डू है, जिसके जीने-मरने से लड़के भी सोच न करेंगे। सब लोग मुझको झूठा-सच्चा राम का ही दास कहते हैं और मेरे मन में भी इस बात का गर्व है कि मैं रामचन्द्रजी को छोड़कर न शिव का भक्त हूँ, न विष्णु का। शरीर की भारी पीड़ा से विकल हो रहा हूँ, उसको बिना रघुनाथजी के कौन दूर कर सकता है ?।। ४२।।
सीतापति साहेब सहाय हनुमान नित, हित उपदेश को महेस मानो गुरु कै।
मानस बचन काय सरन तिहारे पाँय, तुम्हरे भरोसे सुर मैं न जाने सुर कै।।
ब्याधि भूत जनित उपाधि काहु खल की, समाधि कीजे तुलसी को जानि जन फुर कै।
कपिनाथ रघुनाथ भोलानाथ भूतनाथ, रोग सिंधु क्यों न डारियत गाय खुर कै।। ४३।।
भावार्थ – हे हनुमान् जी ! स्वामी सीतानाथजी आपके नित्य ही सहायक हैं और हितोपदेश के लिये महेश मानो गुरु ही हैं। मुझे तो तन, मन, वचन से आपके चरणों की ही शरण है, आपके भरोसे मैंने देवताओं को देवता करके नहीं माना। रोग व प्रेत द्वारा उत्पन्न अथवा किसी दुष्ट के उपद्रव से हुई पीड़ा को दूर करके तुलसी को अपना सच्चा सेवक जानकर इसकी शान्ति कीजिये। हे कपिनाथ, रघुनाथ, भोलानाथ भूतनाथ ! रोगरुपी महासागर को गाय के खुर के समान क्यों नहीं कर डालते ?।। ४३।।
कहों हनुमान सों सुजान राम राय सों, कृपानिधान संकर सों सावधान सुनिये।
हरष विषाद राग रोष गुन दोष मई, बिरची बिरंची सब देखियत दुनिये।।
माया जीव काल के करम के सुभाय के, करैया राम बेद कहैं साँची मन गुनिये।
तुम्ह तें कहा न होय हा हा सो बुझैये मोहि, हौं हूँ रहों मौनही बयो सो जानि लुनिये।। ४४।।
भावार्थ – मैं हनुमान् जी से, सुजान राजा राम से और कृपानिधान शंकरजी से कहता हूँ, उसे सावधान होकर सुनिये। देखा जाता है कि विधाता ने सारी दुनिया को हर्ष, विषाद, राग, रोष, गुण और दोषमय बनाया है। वेद कहते हैं कि माया, जीव, काल, कर्म और स्वभाव के करने वाले रामचन्द्रजी हैं। इस बात को मैंने चित्त में सत्य माना है। मैं विनती करता हूँ, मुझे यह समझा दीजिये कि आपसे क्या नहीं हो सकता। फिर मैं भी यह जानकर चुप रहूँगा कि जो बोया है वही काटता हूँ।। ४४।।
जब कलियुग का प्रकोप चरम सीमा पर पहुँच गया और शिव जी द्वारा हनुमान जी को आदेश मिला कि वो कलियुग के कार्य में दखल ना दें तो समस्याएं विकट हो गयीं। कलियुग हावी होने लगा और हनुमान जी अपने वचन के बंधन में फंस गए। भय यह था कि अगर क्रोध में मारुति ने वचन तोड़ दिया तो कहीं वो एक सम्पूर्ण युग का नाश ना कर दें।
उन्हें इस दुविधा से बाहर निकालने के लिए वाल्मीकि जी ने पुनः जन्म लिया जिन्हें हम तुलसीदास जी के नाम से जानते हैं। इसी के साथ भोलेनाथ ने भैरवनाथ को भी भेजा ताकि जरुरत पड़ने पर कलियुग का सामना वे करें हनुमान जी नहीं। भोलेनाथ जानते थे कि भैरवनाथ क्रोध का प्रतीक अवश्य हैं परन्तु ऐसी कोई बात नहीं जो उन्हें उनकी सीमाओं को पार करने पर विवश कर दे। किन्तु हनुमान जी के साथ एक ऐसी बात जुडी है जो उन्हें हर वचन और हर बंधन को तोड़ने पर विवश कर देती है। वो है श्री राम के लिए अपशब्द। अगर कलियुग के प्रभाव से श्री राम के लिए अपशब्द प्रभाहित हुए तो नाश निश्चित ही निश्चित है। इसलिए भैरवनाथ सदैव हनुमान जी के साथ रहकर मनुष्यों को भूत प्रेत जैसी बाधाओं से मुक्त करते हैं।
तुलसीदास जी का जीवन अत्यंत कठिन गुजरा। भय से कलियुग ने उन्हें बहुत प्रताड़ित किया। यहाँ तक कि उनका जन्म तक होने से रोक दिया। इसलिए वो 12 माह के बाद जन्म ले पाए। उस बच्चे ने पैदा होते ही राम नाम का जाप किया और उनका नाम रामबोला रख दिया गया। कलियुग की यातनाओं से तुलसीदास जी के माता, पिता और पालक माता का शीघ्र ही देहांत हो गया। उसके बाद भी उन्हें अनेकों कष्टों का सामना करना पड़ा और उसी में से एक कष्ट ने उन्हें हनुमान बाहुक की रचना करने का प्रोत्साहन दिया।
कलियुग के प्रभाव से एक बार तुलसीदास जी को वात-व्याधि का रोग लग गया। उनकी भुजाओं में फोड़े-फुंसी आदि से अत्यंत पीड़ा आरम्भ हो गयी। अनेकों उपाय किये परन्तु पीड़ा बढ़ती ही रही। तब तुलसीदास जी ने हनुमान जी का स्मरण किया और हनुमान बाहुक स्रोत्र के माध्यम से अपनी पीड़ा उन तक पहुंचाई। अपने मित्र का आवाहन सुन कर हनुमान जी ने उन्हें उनकी पीड़ा से मुक्त कर दिया क्योंकि हनुमान जी को आते देख कलियुग की छाया स्वयं ही अदृश्य हो गयी। जहाँ हनुमान जी होते हैं वहां कलियुग ठहरने की भी भूल नहीं करता।
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