गंगा दशहरा 2018 का पर्व ज्येष्ठ मास की शुक्ल पक्ष की दशमी को मनाया जाता है। जेठ के दशहरा को जेठ सुदी दशमी भी कहा जाता है। ज्येष्ठ शुक्ल दशमी को सोमवार तथा हस्त-नक्षत्र होने पर यह तिथि घोर पापों को नष्ट करने वाली मानी गई है। हस्त नक्षत्र में बुधवार के दिन गंगावतरण हुआ था। इसलिए यह तिथि अधिक महत्त्वपूर्ण है। इस तिथि में स्नान, दान, तर्पण से दस पापों का नाश होता है इसलिए इसे दशहरा कहते हैं। और गंगा जी से जुड़ा होने के कारण इसका नाम गंगा दशहरा 2018 है।
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गंगा दशहरा 2018 की विधि
इस दिन गंगा में स्नान का विशेष महत्त्व है। गंगा स्नान से व्यक्ति के सारे पापों का नाश हो जाता है। यह जल वर्षभर रखने पर भी सड़ता नहीं है। इस दिन गंगाजी में दूध और बताशे चढ़ाते है। जल, रोली, चावल, मौली, नारियल, दक्षिणा, दीया चढ़ाकर, धूप और दीया जलाते हैं। इस दिन शिवलिंग का पूजन कार्य करने का भी विधान है। गंगा दशहरा 2018 में 24 मई को है।
गंगा दशहरा 2018 की कथा
प्राचीन काल में अयोध्या में सगर नाम के राजा राज्य करते थे। उनके केशिनी तथा सुमति नामक दो रानियाँ थीं। केशिनी से अंशुमान नामक पुत्र हुआ तथा सुमति के साठ हजार पुत्र थे। एक बार राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ किया। यज्ञ की पूर्ति के लिए एक घोड़ा छोड़ा। इन्द्र यज्ञ को भंग करने हेतु घोड़े को चुराकर कपिल मुनि के आश्रम में बाँध आये। राजा ने यज्ञ के घोड़े को खोजने के लिए अपने साठ हजार पुत्रों को भेजा। घोड़े को खोजते-खोजते वे कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचे तो उन्होंने यज्ञ के घोड़े को वहाँ बँधा पाया।
उस समय कपिल मुनि तपस्या कर रहे थे। राजा के पुत्रों ने कपिल मुनि को चोर-चोर कहकर पुकारना शुरू कर दिया। कपिल मुनि की समाधि टूट गई। तथा राजा के सारे पुत्र कपिल मुनि की क्रोधाग्नि में जलकर भस्म हो गये। अंशुमान पिता की आज्ञा पाकर अपने भाइयों को खोजता हुआ जब मुनि के आश्रम में पहुँचा तो महात्मा गरूढ़ ने उसके भाइयों के भस्म होने का सारा वृत्तांत कह सुनाया। गरूढ़ जी ने अंशुमान को यह भी बताया कि यदि इनकी मुक्ति चाहते हो तो गंगा जी को स्वर्ग से धरती पर लाना होगा। इस समय अश्व को ले जाकर अपने पिता के यज्ञ को पूर्ण कराओ इसके बाद गंगा को पृथ्वी पर लाने का कार्य शुरू करना। अंशुमान ने घोड़े सहित यज्ञमंडप में पहुँचकर राजा सगर से सब वृतांत कह सुनाया।
महाराज सगर की मृत्यु के पश्चात अंशुमान ने गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए तप किया परन्तु वह असफल रहे। इसके बाद उनके पुत्र दिलीप ने भी तपस्या की परन्तु वह भी असफल रहे।
अन्त में दिलीप के पुत्र भगीरथ ने गंगाजी को पृथ्वी पर लाने के लिए गोकर्ण तीर्थ में जाकर कठोर तपस्या की। तपस्या करते करते कई वर्ष बीत गये, तब ब्रह्माजी प्रसन्न हुए तथा गंगाजी को पृथ्वी लोक पर ले जाने का वरदान दिया। अब समस्या यह थी कि ब्रह्माजी के कमण्डल से छूटने के बाद गंगा के वेग को पृथ्वी पर कौन सँभालेगा। ब्रह्माजी ने बताया कि भूलोक में भगवान शंकर के अतिरिक्त किसी में यह शक्ति नहीं है जो गंगा के वेग को संभाल सके। इसलिए उचित यह है कि गंगा का वेग सँभालने के लिए भगवान शिव से अनुग्रह किया जाये। महाराज भगीरथ एक अँगूठे पर खड़े होकर भगवान शंकर की आराधना करने लगे। उनकी कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर शिवजी गंगा को अपनी जटाओं में सँभालने के लिए तैयार हो गये। गंगाजी जब देवलोक से पृथ्वी की ओर बढ़ीं तो शिवजी ने गंगाजी की धारा को अपनी जटाओं में समेट लिया।
कई वर्षों तक गंगाजी को जटाओं से बाहर निकलने का पथ न मिल सका। भगीरथ के पुनः अनुनय-विनय करने पर शिवजी गंगा को अपनी जटाओं से मुक्त करने के लिए तैयार हुए। इस प्रकार शिव की जटाओं से छूट कर गंगाजी हिमालय की घाटियों में कलकल निनाद करके मैदान की ओर बढ़ी।
जिस रास्ते से गंगाजी जा रही थी उसी मार्ग में ऋषि जन्हु का आश्रम था। तपस्या में विघ्न समझकर वे गंगा जी को पी गये। भगीरथ के प्रार्थना करने पर उन्हें पुनः जाँघ से निकाल दिया। तभी से गंगा जन्हु पुत्री या जाह्नवी कहलाई। इस प्रकार अनेक स्थलों को पार करती हुई जाह्नवी ने कपिल मुनि के आश्रम में पहुँचकर सगर के साठ हजार पुत्रों के भस्म अवशेषों को तारकर मुक्त किया। उसी समय ब्रह्माजी ने प्रकट होकर भगीरथ के कठोर तप तथा सगर के साठ हजार पुत्रों की आत्मा शांत होने का वर दिया तथा घोषित किया कि तुम्हारे नाम पर गंगाजी का नाम भगीरथी होगा। अब तुम जाकर अयोध्या का राज सँभालो। ऐसा कहकर ब्रह्माजी अन्तर्धान हो गये।
इस प्रकार भगीरथ जी के प्रयास से संसार को गंगाजी जैसी पवित्र नदी की छाया मिली।
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