नारद मुनि आकाश का भ्रमण कर रहे थे तभी उन्होंने देखा की एक मनुष्य राजकुमारी की मूर्ति को देख कर गाना गा रहा है। वो नारद जी का मित्र, पर्वत, था। उसने नारद जी को बताया कि ये राजकुमारी श्रीमती है और इससे सुन्दर स्त्री उसने आज तक नहीं देखी है। ब्रह्मचारी होते हुए भी नारद जी उसके मोह में फंस गए। पर्वत ने नारद जी को बताया की कल उसका स्वयंवर है तो नारद जी उसके साथ चलें। नारद जी ने सोचा कि क्यों न में नारायण से उनके जैसे सुन्दर मुख मांग लूँ ताकि श्रीमती उन्ही से विवाह कर ले। नारायण जानते थे कि नारद मुनि मोह में फंस कर अपने इतने वर्षों कि तपस्या को समाप्त कर देंगे। भगवन अपने भक्तों को गलत मार्ग पर जाने ही नहीं देते। नारद जी ने नारायण से हरी मुख कि मांग की। हरी वैसे तो विष्णु जी को ही कहते हैं परन्तु उसका अर्थ वानर भी होता है इसलिए नारायण ने उन्हें वानर का मुख दे दिया। नारद जी प्रसन्न हो कर वापस चले गए।
नारायण ने लक्ष्मी जी से कहा कि श्रीमती कि जगह वे स्वयंवर में भाग लें और नारायण को वरमाला पहना दें। स्वयंवर में सभी नारद जी को देख कर हंसने लगे। नारायण को वरमाला पहनते देख उनका क्रोध सातवे आसमान पर पहुँच गया और उन्होंने श्राप दे डाला कि आपने वानर मुख देकर मुझे और वानर जाति को लज्जित किया है। यहाँ सभी मुझे देख कर मेरे मुख का उपहास कर रहे हैं। आपको लगता है कि वानर उपहास के पात्र हैं तो ठीक है मैं, देवर्षि नारद नारायण को श्राप देता हूँ कि त्रेता युग के अवतार में यही वानर आपकी सहायता करेंगे और इनकी सहायता के बिना आपका कार्य संपन्न नहीं हो पायेगा।
नारायण ने श्राप स्वीकार किया और नारद जी को धन्यवाद किया कि उन्होंने नारायण को श्राप देकर नारायण लीला के पथ को पूर्ण कर दिया है। नारद जी का तिरस्कार श्राप के लिए ही किया था और इसलिए भी कि वे आगे कभी अपने भक्ति पथ से ना भटक जाएँ। नारद जी को अपनी गलती का एहसास हो गया। उन्होंने क्षमा मांगी परन्तु नारायण ने सब कुछ विधि का विधान और लीला बता कर नारद जी को आश्वासन दिया कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं किया है।