श्री राम की प्रजा सेवा
हनुमान जी और लक्ष्मण जी चिंतित थे क्योंकि बहुत समय से वे श्री राम से नहीं मिल पाए थे। जब भी रात को वो उनसे मिलने उनके कक्ष में जाते, श्री राम वहां होते ही नहीं। एक दिन हनुमान जी ने किसी पुरुष को राजमहल से बाहर निकलते हुए देखा। हनुमान जी को संदेह हुआ कि ये श्री राम हैं परन्तु कहाँ जा रहे हैं? उन्होंने लक्ष्मण जी को साथ लिया और वेश बदलकर पीछा करने लगे।
इधर कैलाश से शिव जी और पार्वती जी भी वेश बदल कर श्री राम से मिलने के लिए चल दिए। नारद जी ने देखा कि भोले शंकर साधू का वेश बना कर जा रहे हैं तो वो भी पीछे पीछे वेश बदल कर चल दिए। शिव जी को पता चल गया परन्तु उन्होंने अनदेखा कर दिया क्योंकि नारद जी को ऐसे कामों में रोका नहीं जा सकता।
शिव जी ने एक झोपडी का दरवाजा खटखटाया और भिक्षा के लिए आवाज लगाईं। अन्दर से वेश बदले हुए श्री राम निकले और उन्हें अन्दर ले कर आये। श्री राम रोज़ रात को अयोध्या में वेश बदलकर निकलते थे और लोगों की सेवा करते थे और इसी कारण हनुमान जी और लक्ष्मण जी कभी उनसे मिल नहीं पाते थे।
झोपडी में एक बीमार बूढी माई लेटी हुई थी। वो बोली, रघुआ देख ये साधू बिना खाना खाए नहीं जाने चाहिए। तूने खाना तो बनाया है ना? श्री राम बोले, माई खाना तो बनाया है पर सिर्फ तीन लोगों के लिए। आपके, स्वामी के और अपने लिए। माई बोली, रघुआ तू साधू बाबा को खाना खिला दे। आज मैं नहीं खाती। श्री राम ने शिव जी और पार्वती जी को खाना खिला दिया। शिव जी और पार्वती जी ने माई को बिलकुल स्वस्थ कर दिया। स्वस्थ होकर माई बोली, रघुआ देख मैं ठीक हो गयी। तेरी सेवा से प्रसन्न होकर साधू बाबा ने मुझे ठीक कर दिया। रघुआ तू धन्य है।
फिर शिव जी ने श्री राम को तंज कसते हुए कहा, कैसे हैं अयोध्या पूरी के श्री राम जो उन्हें अपने भक्त हनुमान से मिलने का भी समय नहीं है? आखिर क्यों वो उसकी पीड़ा को नहीं समझते? लगता है श्री राम के लिए सिर्फ उनकी प्रजा महत्व रखती है उनके अपने नहीं।
तभी बाहर से झाँक रहे हनुमान जी, लक्ष्मण और नारद जी दौड़कर अन्दर आये। हनुमान जी ने शिव जी के पैर पकड़ लिए और कहा, प्रभु मेरे स्वामी को ऐसे तीखे शब्दों से घायल ना कीजिये। मेरे स्वामी बहुत पीड़ा सह कर दूसरों के लिए जीवन जी रहे हैं। मेरे स्वामी तो मेरी आत्मा में बसते हैं और मैं इतना स्वार्थी नहीं हूँ कि उनके मार्ग में बाधा बन जाऊं। फिर हनुमान जी ने श्री राम से निवेदन किया कि वो अपने असली स्वरुप में आयें।
सभी महा ईश्वर अपने असली स्वरुप में आ गया। इतने देवों को एक साथ एक छोटी सी कुटिया में देख कर माई के होश उड़ गए। उसे समझ नहीं आ रहा था कि क्या करे। वो सोच रही थी कि उसने ऐसा क्या किया है जो आज उसका जीवन ही सफल हो गया। सभी देवों ने प्रसन्न होकर एक दुसरे से विदा ली।
भक्त नरोत्तम की कथा
नरोत्तम दास हनुमान जी का भक्त था। एक दिन उसे स्वप्न आया और हनुमान जी बोले कि जब कल तुम स्नान करने नदी में जाओगे तो तुम्हे राम शिला मिलेगी। उसे ले आना और अपने पास रख कर पूजा करना।
अगले दिन नरोत्तम दास जल्दी से नदी में पहुँच गया। बाकी पंडितों ने पुछा कि क्या हुआ है तो उसने कहा कि मेरे प्रभु आये थे और मुझे राम शिला दे कर जायेंगे आज। सभी को लगा कि वैसे तो नरोत्तम हनुमान जी का बहुत बड़ा भक्त है परन्तु ऐसे स्वप्न सच नहीं हुआ करते हैं। थोड़ी देर में ही नदी में तैरते हुए राम शिला आ गयी। नरोत्तम उसे लेकर अपने घर की ओर दौड़ गया। सभी पंडित देख कर अचंभित रह गए।
राम शिला पाकर नरोत्तम बहुत प्रसन्न हुआ और वो उसके ऊपर बैठ गया। उसने शिला को उड़ने के लिए कहा और सोचा कि जब सब लोग मुझे उड़ता हुआ देखेंगे तो मेरी प्रतिष्ठा बढ़ेगी कि में हनुमान जी का सबसे बड़ा भक्त हूँ। शिला उड़ने लगी। हनुमान जी ने शिला को हिलाना शुरू कर दिया तो नरोत्तम दास ने माफ़ी मांगी। हनुमान जी ने कहा कि शिला को नीचे ले कर जाये और मंदिर में रखे। नरोत्तम दास ने वैसा ही किया।
अगले दिन और पंडितों को भी नदी में शिलाएं मिलीं। वो प्रसन्न हो कर शिलाओं को अपने घर ले जाने लगे तो राजा अभिराम के सैनिकों ने उन्हें रोक दिया कि ये शिलाएं राज्य की संपत्ति है। सभी शिलाओं को राजा के पास ले जाया गया। पंडितों ने राजा से कहा कि ये उन्हें हनुमान जी ने भेंट की हैं और राजा का उस पर कोई हक नहीं है तो अभिराम ने उन्हें उसका उचित मूल्य देने की बात कही। पंडितों ने किसी भी मूल्य पर शिलाएं देने से मना कर दिया। राजा ने सैनिकों को आदेश दिया कि बल पूर्वक शिलाओं को ले जाकर राजकोष में रख दें परन्तु सारी शिलाएं गायब हो गयीं।
सभी पंडित उदास मन से नरोत्तम के पास आये और सारी कथा सुनाई। नरोत्तम ने उन्हें कहा कि ये शिला सभी की है और सभी आकर उसकी पूजा करें। राजा अभिराम भी अपनी गलती कि क्षमा मांगने नरोत्तम के पास आये तो उसने कहा कि बजरंग बलि बहुत दयालु हैं। वो सभी को क्षमा कर देते हैं।
श्री राम का अश्वमेघ यज्ञ
श्री राम ने अश्वमेघ यज्ञ प्रारंभ किया और अश्व को छोड़ा गया। अश्व के साथ सेना सहित शत्रुघ्न और हनुमान जी भी थे। जो कोई अश्व को पकड़ लेगा उसे अयोध्या से युद्ध करना होगा वरना अधीनता स्वीकार करनी होगी।
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