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हनुमान जी की संपूर्ण जानकारी और कहानियाँ | त्रेता युग से कलयुग तक

ब्रह्महत्या के पाप का निवारण

रावण क्षत्रिय भी था और ब्राह्मण भी। श्री राम को ब्रह्महत्या के पाप से बचने के लिए शिव जी की पूजा करनी थी। शिव जी श्री राम के पूजन से प्रसन्न होकर उन्हें ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्त कर देते हैं।

श्री राम का अयोध्या आगमन

श्री राम अपना 14 वर्ष का वनवास पूरा करके वापस अयोध्या आ गए। पूरी नगरी में हर्ष उल्लास का माहोल था। सभी जगह उत्सव मनाया जा रहा था।

 

प्रचंडासुर का प्रकट होना

विभीषण से रावण की मृत्यु का बदला लेने के लिए शुक्राचार्य ने प्रचंडासुर को प्रकट किया परन्तु हनुमान जी ने उसे पीट कर भगा दिया।

 

श्री राम का पुत्रेष्टि यज्ञ

संतान प्राप्ति के लिए श्री राम और माता सीता ने भगवान् शिव की प्रार्थना की और पुत्रेष्टि यज्ञ किया।

 

सीता जी का आभूषण दान

हनुमान जी ने सुना कि एक औरत अपने पति से झगडा कर रही थी कि उसके पास सुहाग के कंगन भी नहीं हैं। वो बोलती है कि लोग कहते थे कि राम राज्य में सभी की मनोकामना पूरी होंगी परन्तु मेरी तो सुहाग के कंगन तक की कामना पूरी नहीं हुई।

ये सुन कर हनुमान जी सीधे सीता माता के पास गए और उनसे कुछ गहने मांगने लगे। सीता माता ने चुटकी लेते हुए कहा कि गहने किसके लिए चाहिए आपको? छुप कर कहीं विवाह तो नहीं कर लिया? हनुमान जी बोले, माता क्यों अपने पुत्र का उपहास कर रहीं हैं? मैं तो बाल ब्रह्मचारी हूँ। फिर हनुमान जी ने पूरी बात बताई। ये सुन कर सीता जी ने घोषणा की कि वो सभी सुहागन औरतों को आभूषण दान करेंगी।

 

मुक्तासुर का अंत और हनुमान जी पर विपदा

नारद जी ने हनुमान जी को बताया कि मुक्तासुर नाम का एक राक्षस समुद्र की गहराईयों में रहता है और सभी बहुमूल्य रत्नों, मोतियों और माणिकों पर अपना अधिकार जमाये हुए है। हनुमान जी ने कहा कि वो किसी को कष्ट नहीं पहुंचा रहा तो उसको परेशान क्यों करना है? इस पर नारद जी बोले कि उसने कुछ स्वर्ग की अप्सराओं को कैद कर लिया है और उसके पास एक दिव्या मुक्ताओं का कोड़ा है जिसकी वजह से इंद्र देव भी कुछ नहीं कर पा रहे।

यह सुनकर हनुमान जी मुक्तासुर को मारने समुद्र की गहराइयों में पहुंचे। वहां उन्होंने अप्सराओं को कैद देखा। मुक्तासुर से युद्ध करने के बाद उसका वध कर दिया और सभी अप्सराओं को मुक्त करके वापस अयोध्या लौट गए। समुद्र से हनुमान जी बहुत सारे मोती, माणिक ले कर आये और समस्त अयोध्या में उनकी बारिश कर दी।

हनुमान जी श्री राम और माता सीता के पास थे तभी उन्हें खबर पहुंची कि कुछ सुन्दर स्त्रियाँ उनसे भेंट करना चाहती हैं। हनुमान जी भयभीत हो गए कि ये कौन सी विचित्र मुसीबत आ गयी। माता सीता हनुमान जी को चिड़ाने लगीं तो हनुमान जी बोले, माता रक्षा कीजिए मेरी इस संकट से। सीता माता हनुमान जी को लेकर स्त्रियों के पास गयीं तो देखा वो वही अप्सराएं थीं जिन्हें हनुमान जी ने मुक्तासुर की कैद से आज़ाद किया था। स्त्रियों की मांग थी कि वो हनुमान जी की जीवन भर सेवा करना चाहती हैं क्योंकि इंद्र ने तो उनको बचाने का प्रयास भी नहीं किया। वो अब स्वर्ग नहीं जाएँगी बस हनुमान जी की सेवा करेंगी।

हनुमान जी बोले, देखो मैं श्री राम का सेवक, बाल ब्रह्मचारी हूँ। मुझसे दूर रहो। माता सीता मेरी रक्षा कीजिये। सीता जी बोलीं, अप्सराओं आप हठ छोड़ दो और स्वर्ग चली जाओ। परन्तु वो नहीं मानी। नारद जी पेड़ के पीछे छिपे ये सब देख रहे थे और सोच रहे थे, अरे मेरे प्रिय शिष्य हनुमान ये किस मुसीबत में पड़ गए। लगता है अब मुझे ही कुछ करना होगा। नारद जी अप्सराओं से बोले कि अभी अभी में इंद्र लोक से आ रहा हूँ। बेचारे देवराज बहुत दुखी हैं। आप सभी को याद करते रहते हैं। आपकी रक्षा नहीं कर पाए इस बात का बहुत दुःख है उन्हें। जब अप्सराओं को लगा कि देवराज दुखी हैं तो वो वापस स्वर्ग लौट गयीं और हनुमान जी मुसीबत से बच गए।

 

सीता जी का तुला दान

ऋषि वशिष्ठ ने श्री राम से कहा कि उन्हें धर्मेष्ठी यज्ञ करना चाहिए। गुरु की आज्ञा से श्री राम ने धर्मेष्ठी यज्ञ किया परन्तु दक्षिणा में गुरु जी ने सीता जी को ही मांग लिया। गुरु वशिष्ठ जानते थे कि बहुत जल्द मर्यादा पुरुषोत्तम के राज्य धर्मं का दंड बेचारी सीता माता को भोगना पड़ेगा। इसलिए वो माता को ले जाकर उस क्षण को आने से रोकने का प्रयास कर रहे थे। सभी अयोध्या वासियों ने सीता माता को गुरु दक्षिणा में देने से इनकार कर दिया तो ऋषि वशिष्ठ ने सीता जी के भार के बराबर स्वर्ण दान करने का सुझाव दिया। श्री राम बोले कि जो राज कोष का धन है वो प्रजा का है और उस पर उनका कोई अधिकार नहीं है। तभी सभी अयोध्या वासी बोले कि माता को रोकने के लिए वो सभी अपना खुद का स्वर्ण दान करेंगे। राजकोष के धन की कोई आवश्यकता नहीं है।

तुला दान शुरू हुआ। एक पलड़े में सीता जी बैठाई गयीं। हनुमान जी बोले कि सबसे पहले दान वही करेंगे। हनुमान जी ने दुसरे पलड़े में अपनी गदा रख दी और सीता जी का पलड़ा उठ गया। किसी भी अयोध्या वासी को दान करने कि ज़रूरत नहीं रही। परन्तु लोग विनती करने लगे कि वो दान करके ही जायेंगे और हनुमान जी अकेले पुन्य नहीं ले सकते। प्रजा की मांग के लिए श्री राम ने हनुमान जी को गदा हटाने के लिए कहा और पूरी प्रजा ने स्वर्ण दान कर सीता जी कि दक्षिणा पूर्ण की।

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