महाराज केसरी और माता अंजना को अपने पुत्र की शिक्षा की चिंता सताने लगी क्योंकि सभी ऋषि-मुनि उनके नटखट स्वभाव से हार मान चुके थे। माता अंजना ने पवन देव का स्मरण किया और उन्हें अपनी परेशानी का कारण बताया। पवन देव हनुमान जी को सूर्य लोक लेकर गए ताकि वो सूर्य देव से शिक्षा ग्रहण कर सकें और सूर्य देव ने पहले हनुमान जी कि शिक्षा का वचन भी दिया था।
दशानन ने मै दानव पर आक्रमण कर दिया। मै दानव बहुत मायावी था और उसके माया जाल में फंस कर रावण बंदी बन गया। मै दानव ने उसके सर को काट कर देवी को बलि दी पर तुरंत ही दूसरा सर आ गया। यह देख कर मै दानव भयभीत हो गया और उसने आत्मसमर्पण कर दिया। दशानन का विवाह मै दानव कि पुत्री मंदोदरी से हो गया।
दशानन ने कैलाश के समीप स्थित अपने भाई यक्ष राज कुबेर की नगरी अलकापुरी पर आक्रमण कर दिया। कुबेर युद्ध हार गया और दशानन को अलकापुरी के साथ पुष्पक विमान भी मिल गया।
दशानन अनंत शिव भक्त था। वो चाहता था कि शिव उसके साथ लंका चलें और वहीँ रहें। शिव जी ने इनकार किया और वापस चले गए। दशानन को अपनी शक्ति पर बहुत अभिमान था और वो अत्यंत शक्तिशाली था भी। उसने पूरा कैलाश उठा लिया। ये देख कर शिव जी ने भार बढ़ाना शुरू किया और उसका हाथ दब गया। पीड़ा से वो इतनी तेज़ चिल्लाया कि तीनों लोक थर्रा गए। रोते हुए उसने शिव तांडव स्तोत्र की रचना की और शिव को प्रसन्न किया। प्रसन्न होकर शिव ने भार हल्का किया और दशानन ने अपना हाथ मुक्त किया।
शिव जी ने दशानन को वरदान दिया कि तुम्हारे रुदन से तीनों लोक थर्रा गए। आज से तुम्हारा नाम रावण है। इसके साथ ही उसे एक चंद्रहास खडग प्रदान किया। शिव जी ने कहा कि में प्रत्यक्ष रूप से तुम्हारे साथ नहीं चल सकता परन्तु में तुम्हे अपनी ज्योतिर्लिंग प्रदान करता हूँ। ये जहाँ भी रहेगी वहां मेरा वास रहेगा परन्तु इसे जहाँ भी रख दिया जायेगा ये वहीँ स्थापित हो जाएगी।
रावण शिवलिंग को हाथ में लेकर चल दिया परन्तु रास्ते में उसे लघुशंका हुई। उसने देखा कि एक चरवाहा बालक खड़ा है। उसने शिवलिंग उसे पकड़ने के लिए दी और खुद शंका निवारण के लिए चला गया। वो बालक स्वयं विघ्नहर्ता गणेश थे। नारद जी और गणेश जी ने मिलकर उस शिवलिंग को वहीँ स्थापित कर दिया और वहां से भाग गए। जब रावण लौट कर आया तो उसे बालक नहीं मिला। शिवलिंग को ज़मीन पर स्थापित देख वो क्रोध से पागल हो गया और शिवलिंग को उखाड़ने का प्रयास करने लगा। परन्तु उसके प्रयास विफल हो गए। रावण को खाली हाथ लौटना पड़ा।
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