नारद जी ने देखा कि शिव शंकर अपने स्थान से गायब हैं तो उन्होंने माता पार्वती से पुछा कि प्रभु कहाँ गए हैं? माता पार्वती ने बताया कि देवपुर में राजा वीरमणि के पास गए हैं। वीरमणि शिव जी का अनंत भक्त था और शिव जी ने उसकी रक्षा का उसे वरदान दे रखा था।
वीरमणि के पुत्र रुख्मान्गद ने अश्वमेघ यज्ञ के अश्व को रोक लिया। उसके पिता ने उसे बहुत डांटा कि ये श्री राम के यज्ञ का अश्व है और श्री राम से युद्ध करने का अर्थ है मृत्यु परन्तु वो बोला कि हम युद्ध में प्राण दे देंगे इस तरह अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे। अश्व रोका जा चुका था तो युद्ध होना तय था।
शत्रुघ्न ने रुख्मान्गद को घायल कर दिया। ये देख वीरमणि युद्ध में उतर आये और युद्ध करने लगे। शत्रुघ्न ने वीरमणि पर प्रहार किया परन्तु शिव शंकर प्रकट हुए और अपने वार से शत्रुघ्न को मरणासन्न कर दिया। हनुमान जी ने शिव जी से कहा कि वो इस युद्ध का हिस्सा ना बनें तो शिव जी ने कहा कि वो वचन बद्ध हैं और राजा वीरमणि की सुरक्षा वो अवश्य करेंगे। हनुमान जी ने शिव जी से विनती की कि वो अपने त्रिशूल से उनका वध कर दें क्योंकि पीछे वो भी नहीं हटेंगे।
जब सब कुछ हाथ से निकलता हुआ दिखा तो नारद जी वीरमणि के पास गए और उसे बोले कि जाकर शिव जी को वचन मुक्त करो वरना अनर्थ हो जायेगा। श्री राम कि अधीनता स्वीकारना कोई अपराध नहीं है। वीरमणि तो पहले से ही श्री राम की अधीनता स्वीकार करने को तैयार थे इसलिए उन्होंने शिव जी को वचन मुक्त किया और सभी घायल सैनिकों और योद्धाओं को स्वस्थ करने की विनती की।
सुरथ कुण्डलपुर के राजा थे और श्री राम के अनन्य भक्त। जब उन्होंने सुना कि अश्वमेघ यज्ञ का घोडा उनके राज्य से होकर गुजरने वाला है तो उन्होंने श्री राम के दर्शन पाने का सुनहरा अवसर देखा। उन्होंने सोचा कि अगर मैं अश्व को पकड़ लेता हूँ तो श्री राम युद्ध के लिए आयेंगे और मैं दर्शन कर पाउँगा। सुरथ को यम देव ने उसकी राम भक्ति के लिए कुछ वर्ष आयु और प्रदान की थी ताकि वो श्री राम के दर्शन कर सके।
सुरथ हनुमान जी से मिला और अपने मन की बात कही। पहले तो हनुमान जी नहीं माने पर जब उसने अपने भक्त होने की बात कही तो श्री राम की आज्ञा से वो बंदी बन गए। युद्ध में राम वाण के प्रयोग से सुरथ ने शत्रुघ्न को भी बंदी बना लिया। अब अश्व को छुड़ाने स्वयं श्री राम आये और सुरथ ने भव्य स्वागत किया। श्री राम ने उससे पुछा कि आप मुझसे मिलने अयोध्या भी तो आ सकते थे तो सुरथ ने कहा कि अगर वो अयोध्या आता तो उसके राज्य के अन्य लोग श्री राम के दर्शन से वंचित रह जाते। सुरथ ने फिर अश्व को रिहा कर सभी से विदा ली।
जब शत्रुघ्न और हनुमान जी चिंतामुक्त हो गए कि अब कोई अश्व को नहीं पकड़ेगा तभी लव-कुश ने अश्व पकड़ लिया। हनुमान जी ने जब दो बालकों को अश्व के साथ देखा तो वो समझ गए कि ये मेरे प्रभु के पुत्र हैं। हनुमान जी उनकी वीरता पर फूले नहीं समा रहे थे और जानबूझकर उनके बंधन में बंध गए।
जब हनुमान जी बंदी बन गए तो शत्रुघ्न ने बालकों को ललकारा और अश्व मुक्त करने के लिए कहा। परन्तु उन्होंने कहा कि वो युद्ध करेंगे। शत्रुघ्न ने सोचा कि ये बालक क्या युद्ध करेंगे तो हनुमान जी ने सोचा, शत्रुघ्न भैया अभी पता चल जायेगा कि ये बालक क्या युद्ध करेंगे। लव-कुश ने शत्रुघ्न को भी बंदी बना लिया। फिर लक्ष्मण और भरत आये परन्तु लव-कुश के वाणों के आगे नहीं टिक पाए और बंदी बना लिए गए।
अंत में श्री राम आये और देखा कि सभी योद्धा बंदी बना लिए गए हैं केवल दो बालकों के द्वारा। श्री राम ने युद्ध करने के लिए अपना धनुष उठाया परन्तु वाल्मीकि जी ने युद्ध रोक दिया और उन्हें ज्ञात कराया कि दोनों बालक श्री राम के ही हैं। श्री राम पहली बार अपने पुत्रों से मिले तो भावनाओं के समुन्दर में डूब गए। वाल्मीकि जी ने अश्व मुक्त कराया और अश्वमेघ यज्ञ संपन्न हुआ।
वाल्मीकि जी ने श्री राम से सीता जी को अपनाने को कहा तो श्री राम ने कहा कि सीता को संपूर्ण अयोध्या वासियों के आगे अपने सतित्व की परीक्षा देनी होगी। यह सुनकर सीता जी रो पड़ी और कहने लगीं कि इस संसार में परीक्षा देते देते वो अब थक चुकी हैं। परन्तु अपने स्वामी के स्वाभिमान के लिए वो अंतिम परीक्षा देंगी। यह कह कर उन्होंने धरती माता का आवाहन किया कि अगर उन्होंने सिर्फ अपने स्वामी को तन और मन से देखा है, अगर उनके सतित्व में शक्ति है तो धरती उन्हें अपनी गोद में जगह दे और इस संसार से मुक्ति प्रदान करे। इतना कहते ही धरती फट गयी और सीता जी उसमे समा गयीं। चारों ओर शोक की लहर दौड़ गयी।
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